"समीक्षाओं में आपने पढ़ा होगा कि 'आमिस' फ़िल्म भोजन के बारे में है। ग़लत पढ़ा है। दरअसल ये फ़िल्म भोजन के बारे में है ही नहीं। ये फ़िल्म अतृप्त इंसानी कामनाओं और उन पर लगाए जाने वाले बंधनों के बारे में है। भोजन यहाँ सिर्फ़ एक मैटाफ़र है और क्या कमाल का मैटाफ़र है। इसलिए भी क्योंकि बीते कुछ सालों में इसे हमारे मुल्क में जीने-मरने का, और मरने-मारने का प्रश्न बना दिया गया है। इसलिए भी, क्योंकि फिर भी यह इंसानी शरीर की सबसे मौलिक ज़रूरत है। मरने वाले की भी और मारने वाले की भी। ठीक वैसे ही जैसे प्रेम इंसानी शरीर की सबसे मौलिक ज़रूरत है।
कबीर याद आते हैं,
'बालम आव हमारे गेह रे,
तुम बिन दुखिया देह रे।'
'बालम आव हमारे गेह रे,
तुम बिन दुखिया देह रे।'
यह फ़िल्म एक ऐसे समाज के प्रति चेतावनी है जिसमें कुछ लोग मिलकर बाक़ी लोगों के जीवन का स्वरूप तय करते हैं। उनके पहनावे का स्वरूप तय करते हैं, उनके खानपान का स्वरूप तय करते हैं, उनके प्रेम का स्वरूप तय करते हैं, उनकी देशभक्ति का स्वरूप तय करते हैं।
नैतिकताएं सदा समाज सापेक्ष और समय सापेक्ष होती हैं, पर एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति निश्छल प्रेम समाज सापेक्ष नहीं होता। जब सामाजिक नैतिकता इंसानी स्वभाव को ‘सही’ और ‘गलत’ की कसौटी पर कसने लगती है तो यह खतरे की घंटी है। ‘आमिस’ का साफ़ कहना है कि इंसानी स्वभाव को उसकी निश्छल अभिव्यक्ति से रोकना जैसे किसी उबलते प्रेशर कुकर पर से सेफ़्टी वॉल्व हटा लेना है।"
~ तमाम पारम्परिक नैरेटिव संरचनाओं में तोड़फोड़ करने वाली विस्मयकारी असमिया फ़िल्म 'आमिस' पर फ़रवरी 'हंस' के 'आराम नगर' में लिखते हुए
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